बुद्ध और उनका धम्म Buddha And His Dhamma Hindi [PDF] Download

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Download बुद्ध और उनका धम्म Buddha And His Dhamma Hindi PDF Book by Dr. B. R. Ambedkar for free using the direct download link from pdf reader. Buddha Aur Unka Dhamma बुद्ध और उनका धम्म डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित हिंदी पीडीऍफ़ पुस्तक फ्री डाउनलोड।

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Details About बुद्ध और उनका धम्म Buddha And His Dhamma Hindi Book PDF

Hindi Title:बुद्ध और उनका धम्म
PDF Name:Buddha Aur Unka Dhamma
English Title:The Buddha and His Dhamma
Book By:Dr. B. R. Ambedkar
Language:Hindi
Free PDF Link:Available
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बुद्ध और उनका धम्म Buddha And His Dhamma Book Review in Hindi

भारतीय जनता के एक वर्ग की बौद्ध धम्म में दिलचस्पी बढ़ती चली जा रही हैं इसके लक्षण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इसके साथ साथ एक और स्वाभाविक मांग भी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है और वह है भगवान् बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं के सम्बन्ध में एक स्पष्ट तथा संगत ग्रन्थ की। किसी भी अबौद्ध के लिये यह कार्य अत्यन्त कठिन है कि वह भगवान् बुद्ध के चरित्र और उनकी शिक्षाओं को एक ऐसे रूप में पेश कर सके कि उनमें संपुर्णता के साथ साथ कुछ भी असंगति न रहे।

जब हम दीघनिकाय आदि पालि ग्रन्थों के आधार पर भगवान् बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं तो हमें वह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता, और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। यथार्थ बात है और ऐसा कहने में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं कि संसार में जितने भी धर्मों के संस्थापक हुए हैं, उनमें भगवान बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्यायें पैदा करता है जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन अवश्य है।

क्या यह आवश्यक नहीं कि इन समस्याओं का निराकरण किया जाय और बौद्ध धम्म के समझने समझाने के मार्ग को निष्कण्टक किया जाय? क्या अब वह समय नहीं आ गया है कि बौद्धजन उन समस्याओं को ले, उन पर खुला विचार-विमर्श करें और उन पर जितना भी प्रकाश डाला जा सके डालने का प्रयास करें? इन समस्याओं की ही चर्चा को उत्प्रेरित करने के लिये मै उनका यहां उल्लेख कर रहा हूँ। पहली समस्या भगवान् बुद्ध के जीवन की प्रधान घटना प्रव्रज्या के ही सम्बन्ध में है।

बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण की? परम्परागत उत्तर है कि उन्होंने प्रव्रज्या इसलिये ग्रहण की क्योंकि उन्होंने एक वृद्ध पुरुष, एक रोगी व्यक्ति तथा एक मुर्दे की लाश को देखा था। स्पष्ट ही यह उत्तर गले के नीचे उतरने वाला नहीं। जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या ग्रहण की उस समय उनकी आयु २९ वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृष्यों को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की तो यह कैसे हो सकता है कि २९ वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढे, रोगी, तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो?

यह जीवन की ऐसी घटनायें है जो रोज ही सैकडो हजारों घटती रहती है और सिद्धार्थ ने २९ वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि २९ वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बुढे, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और २९ वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा । यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होतीं।

तब प्रश्न पैदा होता है कि यदि यह व्याख्या ठीक नहीं तो फिर इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर क्या है? दूसरी समस्या चार आर्य-सत्यों से ही उत्पन्न होती है। प्रथम सत्य है दुःख आर्य सत्य? तो क्या चार सत्य भगवान् बुद्ध की मूल शिक्षाओं में समाविष्ट होते हैं ? जीवन स्वभावत: दुःख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्ध धम्म की जड पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन ही दुःख है, मरण भी दुःख है, पुनरूत्पत्ति भी दुःख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है।

न धम्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुःख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धम्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुःख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकता है क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुःखमय है।

बुद्ध और उनका धम्म Buddha And His Dhamma Book Review in English

The interest of a section of the Indian public is increasing in Buddhism, its symptoms are clearly visible. At the same time, another natural demand is also increasing and that is for a clear and relevant text on the character of Lord Buddha and his teachings. It is very difficult for any non-Buddhist to present the character of Lord Buddha and his teachings in such a way that there is no inconsistency in them along with their perfection.

When we try to write the biography of Lord Buddha on the basis of Pali texts like Dighanikaya etc., we do not find that task easy, and the coherent expression of His teachings becomes even more difficult. It is a fact and it is no exaggeration to say that in all the religions that have been founded in the world, the account of the practice of Lord Buddha creates many such problems in front of us, which are very difficult if not impossible to solve.

Is it not necessary that these problems should be resolved and the path of understanding and understanding Buddhism should be clarified? Isn’t the time now for Buddhists to take those problems, discuss them openly and try to shed as much light as they can? I am mentioning them here to stimulate the discussion of these problems itself. The first problem is about Pravrajya, the main event in the life of Lord Buddha.

Why did Buddha take Pravrajya? The traditional answer is that he attained Pravrajya because he saw the corpse of an old man, a sick man and a dead man. Clearly, this answer is not going to go down the throat. At the time when Siddhartha (Buddha) attained Pravrajya, he was 29 years old. If Siddhartha attained Pravrajya upon seeing these three visions, then how can it be that till the age of 29, Siddhartha has never seen an old, sick and dead person?

These are events of life that happen hundreds of thousands every day and Siddhartha must have seen them even before he was 29 years old. It is impossible to accept the traditional belief that Siddhartha had not seen an old, sick and dead man until he was 29 years old and that he only saw it for the first time when he was 29 years old. This explanation does not seem to stand up to the test of logic.

Then the question arises if this explanation is not correct then what is the real answer to this question? The second problem arises from the Four Noble Truths. The first truth is sorrow, the noble truth? So are the Four Truths incorporated into the core teachings of Lord Buddha? Life is suffering in nature, this principle seems to be at the root of the Buddha Dhamma itself. If life is suffering, death is also suffering, rebirth is also suffering, then everything is over.

Neither Dhamma can make a person happy in this world, nor can Darshan. If there is no freedom from suffering then what can even Dhamma do and what can Buddha also do to free a man from suffering because birth itself is sorrowful.

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